राष्ट्र भाषा – हिंदी | National Language Hindi

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राष्ट्र भाषा – हिंदी

national language  का प्रयोग किसी देश अथवा वहां बसने वाली जनता के लिए होता है। प्रत्येक राष्ट्र अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है। उसमें अनेक जातियों और धर्मों को मानने वाले लोग सम्मिलित रहते हैं। उस राष्ट्र में विभिन्न प्रांतों के निवासी विभिन्न प्रकार की भाषा बोलते हैं। इस विभिन्नता के साथ-ही-साथ उनमें एकता भी रहती है। पूरे राष्ट्र का शासन एक ही केंद्र से होता है। अत: राष्ट्र की एकता को दृढ़ बनाने के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता होती है जिसका प्रयोग पूरे राष्ट्र के महत्त्वपूर्ण कार्यों में किया जाता है। केंद्रीय सरकार के कार्य भी उसी भाषा में होते हैं। ऐसी व्यापक भाषा राष्ट्र भाषा कहलाती है।

राष्ट्र भाषा–

तो देश की अधिकांश जनता की भाषा होती है। उसके लिखने-पढ़ने तथा समझने वाले प्रायः सभी प्रांतों में होने चाहिए। उसे उन्नत तथा हर प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की बातों को व्यक्त करने में समर्थ होना चाहिए। राष्ट्र भाषा की लिपि तथा शब्दावली को वैज्ञानिक, सुंदर तथा सरल होना चाहिए। उसकी वर्णमाला हर प्रकार की ध्वनियों को व्यक्त करने में समर्थ होनी चाहिए। उस भाषा में उन्नत साहित्य, दर्शन, ज्योतिष आदि विषयों की पुस्तकें होनी चाहिएं। राष्ट्र भाषा की सहायक, अनेक भाषाएं होनी चाहिएं। राष्ट्रीय चेतना के अनुकूल राष्ट्र भाषा को भी होना चाहिए। राष्ट्र भाषा संस्कृति तथा परंपरा की पोषक होती है। राष्ट्र भाषा ही राज्य भाषा बनने योग्ये होनी चाहिए। राजनीतिक संघर्ष में राष्ट्रीय भावनाओं का जोर अधिक रहता है। उस समय का साहित्य जिस भाषा में अधिक प्रकाशित होता है वही भाषा सरलता से राष्ट्र भाषा बन जाती है। राष्ट्र भाषा भी राष्ट्रीयता के विकास में सहायक सिद्ध होती है। क्योंकि

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल ॥”

भारत प्राचीन काल से एक ऐसा देश रहा है जिसमें विभिन्न राज्य सम्मिलित रहे हैं। सबमें अपने देश के प्रति प्रेम, आदर और उसके प्रति त्याग की भावना रही है किंतु सभी राज्यों की सामूहिक भावना की अभिव्यक्ति तत्कालीन संस्कृत भाषा में हुई है। यही कारण है कि संस्कृत भाषा में राष्ट्रीयता की भावना का यह रूप मिलता है जिसे राष्ट्रीय भावना कहते हैं। हिंदी साहित्य के वीरगाथा काल में बाह्य आक्रमणों के कारण हिंदू राष्ट्रीयता का विकास हुआ। पर संस्कृत उस काल से पूर्व भारत की राष्ट्रभाषा रही। इसी प्रकार यूरोप में लैटिन, रोमन आदि भाषाएं राष्ट्र भाषा बनी रहीं। समय और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ राज्यों का विभाजन हुआ। फलस्वरूप उनकी संख्या बढ़ी और उनके प्रभाव में प्रांतीय भाषायें राज्य विशेष की राष्ट्र भाषाएं बनती चली गईं। फिर भारतेंदु युग में राष्ट्रीय भावना का उदय नए रूप में हुआ पुनः राष्ट्रीयता का व्यापक अर्थ लिया जाने लगा तथा हिंदी में राष्ट्रीय भावनाओं का विकास होने लगा। सन् 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ और उसे एक ऐसी राष्ट्र भाषा की आवश्यकता हुई,

जिसमें निम्नलिखित गुण हों-

(1) उस भाषा को प्रजातंत्र भारत की अधिकतम जनता के लिए सुगम तथा सरलतापूर्वक पठनीय होना चाहिये।

(2) उस भाषा की लिपि तथा शब्दावली भारत के प्रत्येक भाग के लिए उपयोगी अनुकरणीय हो सके।

(3) संस्कृत भाषा के शब्द प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में मिलते हैं। अतः उस भाषा की प्रकृति संस्कृत के

अधिक समीप हो।

(4) उस भाषा में ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म आदि विषयों को व्यक्त करने की क्षमता बढ़ाई जा सके।

(5) उस भाषा का प्रयोग भारत की अधिकांश जनता करती हो।

इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हिंदी ही कर सकती है। इसकी शब्दावली और लिपि इतनी सरल और वैज्ञानिक है कि सभी भारतीय इसको सरलतापूर्वक समझ और सीख सकते हैं। यह देखा गया है कि अन्य सुदूर प्रांतों के लोग भी हिंदी बोली जाने वाली भूमि में आ कर स्वल्प काल में ही इसे सीख लेते हैं, और बोलने-समझने लग जाते हैं, पर अन्य प्रांतों की भाषाओं के संबंध में अपेक्षाकृत अधिक कठिनाई पड़ती है। इसी कारण यह भाषा अधिक उन्नत भी है। ज्ञान, विज्ञान आध्यात्मिक आदि से संबद्ध विषयों का प्रतिपादन इसमें सरलतम ढंग से हो सकता है। इसकी व्यापकता भी अन्य प्रांतीय भाषाओं से अधिक है। मिथिला से लेकर पंजाब तक तथा विंधयांचल से उत्तर के पूरे क्षेत्र में इसका प्रयोग होता है। इसकी प्रकृति संस्कृत से अधिक साम्य रखती है। अतः यह राष्ट्र भाषा के सभी सामान्य गुणों से युक्त है तथा इसकी त्रुटियां सरलता से दूर की जा सकती हैं। किसी ने कहा भी है कि –

हिंदी भारत माता के भाल की बिंदी है।”

अन्य सभी भारतीय भाषाओं का क्षेत्र हिंदी की अपेक्षा बहुत सीमित है। उनकी लिपि तथा शब्दावली कठिन तथा एक देशीय है। संस्कृत शब्द अन्य भाषाओं में आ कर अधिकतर बदले प्रतीत होते हैं। अन्य भाषाओं की प्रकृति भारत की चिर-परिचित संस्कृत भाषा से अधिक भिन्न है। दक्षिण भारत की भाषाओं का परिवार भी भिन्न है। इस प्रकार भारत की अन्य भाषाएं प्रयत्न करने पर भी संभवतः हिंदी जैसी सर्वग्राहय नहीं बन पायेंगी। अन्य भाषाओं में इतनी नमनीयता नहीं है जो भारत की बदलती हुई परिस्थिति के अनुसार बन सकें। फिर भी प्रांतीय भाषा के रूप में उनकी उपयोगिता अक्षुण्ण है। उनका संरक्षण और संवर्धन आवश्यक है। भारत सरकार की ओर से हिंदी सीखने वालों को सरकारी नौकरी मिलने में प्राथमिकता दी जाए। हिंदी की विशेष परीक्षाएं पास करने पर सरकारी कर्मचारी को विशेष पुरस्कार देने की भी व्यवस्था हो । अहिंदी भाषा प्रांतों में हिंदी पत्रिकाएं निकालने की व्यवस्था तथा संपादकों एवं प्रकाशकों को विशेष रियायतें और सहायता दी जाएं। अहिंदी भाषी प्रांतों में कार्यालयों में परीक्षाओं की व्यवस्था की जाए। व्यावहारिक शब्दावली के निर्माण तथा शब्द-कोष प्रकाशन के कार्य को गति दी जाए। कार्यालयों में हिंदी सिखाने वाले अध्यापकों तथा टाइप सिखाने वाले लिपिक प्रशिक्षकों की नियुक्तियां की जाएं।

भारत जैसे विशाल राष्ट्र के लिए, जिसमें अनेक जाति, धर्म और परंपरा को मानने वाले लोग बसते हैं और जहां अनेक प्रांतीय भाषाएं बोली और लिखी-पढ़ी जाती हैं, हिंदी ही राष्ट्र भाषा बन सकती है। भारतीय समाज की सबसे बड़ी विशेषता – अनेकता में एकता, विषमता में समता, विभिन्नता में सहयोग है।

भारतीय संस्कृति की ही यह विशेषता है कि विभिन्न प्रकार के लोगों को उनकी जातिगत विशेषता के साथ उन्हें अपने में आत्मसात् कर लेती है। इसी प्रकार हिंदी एक ऐसी भाषा है जो भारत की राष्ट्रीयता को अविकल रखते हुए पूरे देश की राष्ट्र भाषा बन सकती है।



हिंदी भाषा स्वयं वैज्ञानिक होने के साथ-साथ इसमें वैज्ञानिक तत्त्वों को ग्रहण करने की अधिक क्षमता है। विज्ञान में प्रयुक्त शब्दावली का निर्माण हिंदी में सरलतापूर्वक हो सकता है। कारण यह है कि आधुनिक विज्ञान की शब्दावली हिंदी में पर्याप्त मात्रा में बन गई है। साथ ही गणित और ज्योतिष के ऐसे अनेक शब्द हैं जो ज्यों-के-त्यों विभक्ति हटाकर हिंदी में ग्रहण कर लिये जाते हैं और अनेक ग्रहण भी कर लिए गए हैं। हिंदी में विभक्तियां अलग से लगाई जाती हैं। अतः ग्रहीत शब्दों में विकार कम आता है और वे अपेक्षित विषय के लिए अभिलषित अर्थ में प्रयुक्त हो जाते हैं। अंग्रेजी या अन्य भाषाओं के शब्दों को भी अपने व्याकरण के अनुसार शासित करके अपनाने में हिंदी की क्षमता सर्वाधिक है। आध्यात्मिक ज्ञान संबंधी साहित्य हिंदी में पर्याप्त मात्रा में है। भारतीय जन-मानस भी आज अपनी भाषा के प्रति जागरूकता दिखाने का संकल्प ले रहा है। इससे विकास की संभावना बढ़ती जा रही है। इस पुनीत तथा राष्ट्र-कल्याण के कार्य को सफल बनाने की प्रतिज्ञा करते हुए हमें भारतेंदु हरिश्चंद्र की निम्नलिखित उक्ति को अपने व्यावहारिक जीवन में अपनाना चाहिए

 

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।”

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