राष्ट्रपिता महात्मा गांधी – Mahatma Gandhi

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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी—

mahatma gandhi “समय का दिव्य झूला कभी-कभी पृथ्वी की ओर झुक जाता है और अकस्मात् ही किसी दिव्य विभूति को भूमि पर छोड़ जाता है। वह विभूत कालांतर में अपनी असाधारण प्रतिभा से विश्व को चमत्कृत कर देती है।”

महात्मा गांधी भारत की ऐसी ही विभूति हैं। उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के प्रयोग से अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। संभवतः ऐसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिल सकता जबकि भौतिक शक्ति को इस तरह झुकना पड़ा हो। दुनिया के इतिहास में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा। आइंसटीन ने गांधी जी के विषय में लिखा है, “आने वाली पीढ़ियां कठिनता से विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस का बना ऐसा व्यक्ति भी कभी इस भूतल पर आया था।” इस महान् पुरुष को जन्म देने का श्रेय गुजरात काठियावाड़ के पोरबंदर स्थान को है। भारत इस प्रांत का चिऋणी रहेगा। 2 अक्तूबर, 1869 का वह पवित्र दिन था, जिस दिन इस महापुरुष ने पृथ्वी पर अवतार धारण किया। आप मोहनदास कर्मचंद गांधी के नाम से प्रख्यात हुए। आपके पिता राजकोट राज्य के दीवान थे। इसलिए आपका बाल्यकाल भी वहीं व्यतीत हुआ। माता पुतली बाई बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की एक सती-साध्यी स्त्री थीं, जिनका प्रभाव गांधी जी पर आजीवन रहा।

इनको प्रारंभिक शिक्षा पोरबंदर में हुई। कक्षा में यह साधारण विद्यार्थी थे श्रेणी में किसी सहपाठी से बातचीत नहीं करते थे। पढ़ाई के मध्यम वर्गीय छात्रों में से थे। अपने अध्यापकों का पूर्ण सम्मान करते थे। आपने मैट्रिक तक की शिक्षा स्थानीय स्कूलों में ही प्राप्त की तेरह वर्ष की आयु में कस्तूरबा के साथ आपका विवाह हुआ। आप आरंभ से ही सत्यवादी थे।

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जब आप कानून पढ़ने विलायत गए, उस समय आप एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे। आपने माता को दिए हुए वचनों का पालन पूरी तरह किया। अंत में वे ही वचन सत्यनिष्ठ, धर्मात्मा एवं महात्मा का उच्च पद प्राप्त करने में सहायक बने। विलायत में शिक्षा ग्रहण के समय वे विलासिता से कोसों दूर रहे। वहां से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे।

गांधी जी ने बंबई (मुंबई) में आकर वकालत का कार्य आरंभ किया। किसी विशेष मुकद्दमे की पैरवी करने के लिए ये दक्षिणी अफ्रीका गए। वहां भारतीयों के साथ अंग्रेजों के दुर्व्यवहार को देखकर हमें राष्ट्रीय भाव जागृत हुआ। वहां पर उन्होंने पहले सत्याग्रह का प्रयोग किया, जिसमें उन्हें सफलता प्राप्त हुई।

जब 1915 ई० में भारत वापस आए तो अंग्रेजों का दमनचक्र जोरों पर था। रोल्ट एक्ट जैसे काले कानून लागू थे। सन् 1919 में जलियांवाला बाग की नरसंहारी दुर्घटनाओं ने मानवता को नतमस्तक कर दिया था। उस समय अखिल भारतीय कांग्रेस केवल पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय लोगों की एक जमात थी देश की बागडोर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के हाथ में थी। उस समय कांग्रेस की स्थिति इतनी अच्छी न थी वह दो दलों में विभक्त थी। गांधी जी ने देश की बागडोर अपने हाथ में लेते ही इतिहास का एक नया अध्याय शुरू किया। सन् 1920 में असहयोग आंदोलन का सूत्रपात करके भारतीय राजनीति को एक नया मोड़ दिया। इसके बाद 1921 ई० में जब ‘साइमन कमीशन’ भारत आया तो गांधी जी ने उसका पूर्ण बहिष्कार किया और देश का सही नेतृत्व किया। सन् 1930 में नमक आंदोलन  तथा डांडी यात्रा का श्रीगणेश किया।


सन् 1942 के अंत में द्वितीय महायुद्ध के साथ ‘ अंग्रेजो ! भारत छोड़ो’ आंदोलन का बिगुल बजाया और कहा, “यह मेरी अंतिम लड़ाई है।” वे अपने अनुयायियों के साथ गिरफ्तार हुए। इस प्रकार अंत में 15 अगस्त, 1947 ई० को अंग्रेज यहां से विदा हुए। पाकिस्तान और हिंदुस्तान दो देश बने। जब भारतीय लोग अपनी नवागंतुक आजा देवी का स्वागत हर्षोन्मत्त होकर कर रहे थे, यह मानवता का पुजारी शांति का अग्रदूत, भाई-भाई के खून से पीड़ित मानवता को अपने सदुपदेश रूपी मरहम का लेपन करता हुआ गली-गली और कूचे-कूचे में शांति की अलख जगा रहा था।

गांधी जी का व्यक्तित्व महान् था।

वह एक आदर्श पुरुष थे। उनकी वाणी में जादू का सा प्रभाव था। वह सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। अछूतोद्धार के लिए उनके कार्य स्मरणीय हैं। वह मानव मात्र के प्रति स्नेह और सहानुभूति रखते थे। वे शांति के पुजारी थे। उन्होंने विश्व बंधुत्व की भावना का उदय करने के लिए अधक प्रयास किया। वे सभी धर्मों का आदर करते थे। वे गीता, कुरान, गुरु ग्रंथ साहिब, बाइबल सभी धर्म ग्रंथों में से पढ़कर कुछ सुनाते थे। उन्होंने कहा था, “मैं हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, यहूदी सब कुछ हूं।”

गांधी जी जानते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। उन्होंने कहा था, “भारत के अधिक लोग गांवों में रहते हैं, इन गांवों में अशिक्षा है, बीमारी है। इन गांवों की दशा सुधारो, चरखा कातो, हिंसा के भाव छोड़ो। इससे हमें आंतरिक स्वतंत्रता मिलेगी, फिर हम आत्मिक बल और आंतरिक स्वतंत्रता के सहारे अंग्रेजी सत्ता को भी समाप्त कर सकेंगे।”

स्वतंत्रता का पुजारी बापू गांधी 30 जनवरी, 1948 को एक मनचले नौजवान नाथूराम गोडसे की गोली का हुआ। अहिंसा का सबसे बड़ा उपासक हिंसा की भेंट चढ़ गया। उसकी मृत्यु पर बनांडशा ने लिखा था, “इससे पता चलता है कि बहुत नेक बनना कितना भयंकर है।” चाहे बापू भौतिक रूप से हमारे मध्य में नहीं है तो भी उनके आदर्श इस महान् देश का पथ-प्रदर्शन करते रहेंगे। गांधी जी मर कर भी अमर हैं क्योंकि उनके आदर्श आज भी हमारा मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।

 

 

 

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