दहेज प्रथा (dowry system) एक भयानक अभिशाप
भूमिका – भारतीय समाज में फैली हुई अनेक कुरीतियां इस गौरवशाली समाज के माथे पर कलंक हैं। जाति पाति, छुआ-छूत और dowry system जैसी प्रथाओं के कारण ही विश्व के उन्नत समाज में हमारा सिर लाज से झुक जाता है। समय-समय पर अनेक समाज सुधारक तथा नेता इन कुरीतियों को मिटाने का प्रयास करते रहे हैं किंतु इनका समूल नाश संभव नहीं हो सका है। दहेज प्रथा तो दिन-प्रतिदिन अधिक भयानक रूप लेती जा रही है।
अनेक समाचार – समाचार पत्रों के पृष्ठ उलटिए, आपको अनेक समाचार इस प्रकार के दिखाई देंगे, सास ने बहू पर तेल छिड़क कर आग लगा दी, दहेज के लोभियों ने बारात लौटाई, स्टोव फट जाने से नवविवाहित की मृत्यु इत्यादि। इन समाचारों का विस्तृत विवरण पढ़कर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और हम सोचते हैं, क्या सचमुच मनुष्य इतना निर्मम तथा जालिम हो सकता है?
दहेज का अर्थ व इसका आरंभ – दहेज का अर्थ है, विवाह के समय दी जाने वाली वस्तुएं हमारे समाज में विवाह के साथ लड़की को माता-पिता का घर छोड़कर पति के घर जाना होता है। इस अवसर पर अपना स्नेह प्रदर्शित करने के लिए कन्या-पक्ष के लोग लड़की लड़के तथा लड़के के संबंधियों को यथाशक्ति भेंट दिया करते हैं। यह है। प्रथा कब शुरू हुई कहा नहीं जा सकता। लगता है यह प्रथा अत्यंत प्राचीन है। हमारी लोक कथाओं और प्राचीन काव्यों में दहेज प्रथा का काफ़ी वर्णन हुआ है।
सात्विक रूप – दहेज एक सात्विक प्रथा थी पिता के संपन्न घर के पतिगृह में प्रवेश करते ही पुत्री के लिए पिता का घर पराया हो जाता था। उसका पितृगृह से अधिकार समाप्त हो जाता था अतः पिता अपनी संपन्नता का कुछ भाग दहेज के रूप में विदाई के समय कन्या को देता था। दहेज में एक सात्विक भावना और भी है, कन्या अपने घर में श्री समृदधि को सूचक बने। अब उसका खाली हाथ पतिगृह में प्रवेश अपशकुन माना जाता है। फलतः वह अपने साथ वस्त्राभूषण, बर्तन तथा अन्य पदार्थ साथ ले जाती है।
कन्या धरोहर – कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ में कन्या को पराई वस्तु कहा है। वस्तुतः वह धरोहर है, जिसे पिता पति-पाणिग्रहण करके सौंप देता है। जिस प्रकार बैंक अपने पास जमा की हुई धरोहर राशि को ब्याज सहित चुकाता है, उसी प्रकार पिता भी धरोहर (कन्या) को सूद (दहेज) सहित लौटाता है। इस प्रकार Dowry system में कुछ आर्थिक कर्तव्य की भावना भी निहित है।
विकृत रूप – हजार वर्ष की पराधीनता और स्वतंत्रता के गत 58 वर्षों की स्वच्छंदता ने दहेज प्रथा को विकृत कर दिया। कन्या की श्रेष्ठता शील, सौंदर्य से नहीं बल्कि दहेज से आंकी जाने लगी। कन्या की कुरूपता कुसंस्कार दहेज के आवरण में आच्छादित हो गए। खुले आम वर को बोली-बोली जाने लगी। दहेज में प्रायः राशि से परिवारों का मूल्यांकन होने लगा । समस्त समाज जिसे ग्रहण कर ले वह दोष नहीं, गुण बन जाता है। फलतः दहेज सामाजिक विशेषता बन गई।
Dowry system को आरंभ में स्वेच्छा और स्नेह से भेंट देने तक सीमित रही होगी धीरे-धीरे ये विकट रूप धारण करने लगी है। वर पक्ष के लोग विवाह से पहले ही दहेज में ली जाने वाली धन-राशि तथा अन्य वस्तुओं का निश्चय करने लगे हैं।
लोभी वृत्ति – एक ओर वर पक्ष की लोभी वृत्ति ने इस कुरीति को बढ़ावा दिया तो दूसरी ओर ऐसे लोग जिन्होंने काफ़ी धन इकट्ठा कर लिया, बढ़-चढ़ कर दहेज देने लगे। उसकी देखा-देखी अथवा अपनी कन्याओं के लिए अच्छे वर तलाश करने के इच्छुक निर्धन लोगों को भी दहेज का प्रबंध करना पड़ा। इसके लिए बड़े-बड़े कर्ज लेने पड़े, संपत्ति बेचनी पड़ी, अपार परिश्रम करना पड़ा लेकिन वर पक्ष की मांगें सुरसा के मुख की भांति बढ़ती गई।
मुख्य कारण – दहेज कुप्रथा का एक मुख्य कारण यह भी है कि आज तक हम नारी को नर के बराबर नहीं समझते। लड़के वाले समझते हैं कि वे लड़की वालों पर बड़ा अहसान कर रहे हैं। यही नहीं विवाह के बाद भी वे लड़की को मन से अपने परिवार का अंग नहीं बना पाते। यही कारण है कि वे हृदयहीन बनकर भोली-भाली भावुक, नवविवाहित युवती को इतनी कठोर यातनाएं देते हैं।
समस्या का समाधान – दहेज प्रथा बंद कैसे हो, इस प्रश्न का एक सीधा-सा उत्तर है-कानून से। लेकिन हम देख चुके हैं कि कानून से कुछ नहीं हो सकता। कानून लागू करने के लिए एक ईमानदार व्यवस्था की ज़रूरत होती है। इसके अतिरिक्त जब तक सशक्त गवाह और पैरवी करने वाले दूसरे लोग दिलचस्पी न लेंगे, पुलिस तथा अदालतें कुछ न कर सकेंगी। दहेज को समाप्त करने के लिए एक सामाजिक चेतना आवश्यक है। कुछ गांवों में इस प्रकार की व्यवस्था की गई है कि जिस घर में बड़ी बारात आए या जो लोग बड़ी बारात ले जाएं, उनके घर गांव का कोई निवासी बधाई देने नहीं जाता। दहेज के लोभी लड़के वालों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया जाता है।
युवक आगे आएं – दहेज प्रथा समाप्त करने के लिए स्वयं युवकों को आगे आना चाहिए। उन्हें चाहिए कि वे अपने माता-पिता तथा अन्य संबंधियों को स्पष्ट शब्दों में कह दें- शादी होगी तो बिना दहेज के होगी। इन युवकों को चाहिए कि वे उस संबंधी का डटकर विरोध करें जो नवविवाहित को शारीरिक या मानसिक कष्ट देता है।
नारी की आर्थिक स्वतंत्रता – दहेज प्रथा की विकटता को कम करने में नारी का आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होना भी बहुत हद तक सहायक होता है। अपने पैरों पर खड़ी युवती को दूसरे लोग अनाप-शनाप नहीं कह सकते। इसके अतिरिक्त चूंकि वह चौबीस घंटे घर पर बंद नहीं रहेगी, सास और ननदों की छींटाकशी से काफ़ी बची रहेगी। बहू के नाराज हो जाने से एक अच्छी-खासी आय हाथ से निकल जाने का भय भी उनका मुख बंद किए रखेगा।
उपसंहार – Dowry system हमारे समाज का कोढ़ है। यह प्रथा साबित करती है कि हमें अपने को सभ्य मनुष्य
कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। जिस समाज में दुल्हनों को प्यार की जगह यातना दी जाती है, वह समाज निश्चित रूप से-सभ्यों का नहीं नितांत असभ्यों का समाज है। अब समय आ गया है कि इस कुरीति को समूल उखाड़ फेंकें।